
Gaza: रमज़ान का पाक महीना पूरे मुस्लिम जगत के लिए बरकतों और रहमतों से भरा होता है। मगर इस बार ग़ज़ा के मुसलमानों के लिए यह महीना सिर्फ इबादत का ही नहीं, बल्कि जख़्मों को भुलाने और नयी उम्मीद जगाने का भी है। इस्लामी कैलेंडर के सबसे मुक़द्दस महीने में, जहाँ पूरी दुनिया के मुसलमान इबादत और रोज़ों में मसरूफ़ हैं, वहीं ग़ज़ा के लोग तमाम मुश्किलों के बावजूद इफ्तार और नमाज़ के लिए मस्जिदों में जमा हो रहे हैं।
इस्राइली हमलों से तबाह हो चुके Gaza के मुसलमानों ने रमज़ान के आने के साथ ही अपने ग़मों को पीछे छोड़कर इबादत में डूब जाने का फैसला किया है। बीते महीनों में ग़ज़ा ने बर्बादी का वो मंजर देखा है, जिसे लफ़्ज़ों में बयां करना मुश्किल है। हर गली, हर मोहल्ले में किसी न किसी के घर का कोई न कोई हिस्सा मलबे में तब्दील हो चुका है।
लेकिन इसके बावजूद जब शाम होती है, तो ग़ज़ा की मस्जिदों और घरों से इफ्तार की दुआएँ बुलंद होती हैं। अगरचे हालात मुश्किल हैं, लेकिन रोज़ेदार अपनी क़ुर्बानियों को भूलकर अल्लाह का शुक्र अदा कर रहे हैं कि उन्हें एक और रमज़ान जीने की मोहलत मिली।
इफ्तार के लम्हे: खुशियों और उम्मीदों की नई किरण

Gaza: ग़ज़ा के कई इलाकों में खाने-पीने की किल्लत बनी हुई है। लेकिन इसके बावजूद लोग अपनी रोज़ी-रोटी को दूसरों के साथ बांटने से गुरेज़ नहीं कर रहे। कई राहत संगठनों ने सामूहिक इफ्तार का इंतज़ाम किया है, जहाँ सैकड़ों लोग मिलकर रोज़ा खोलते हैं।
“हमारे पास बहुत कुछ नहीं है, लेकिन जो है, उसमें भी बरकत है,” यह कहना था एक स्थानीय निवासी उमर फारूक़ का, जो अपने परिवार के साथ मस्जिद अल-अक्सा की तर्ज़ पर बनाए गए एक स्थानीय मस्जिद में इफ्तार करने पहुँचे थे।
ख़जूर, पानी, और थोड़ा सा खाना—यही इस इफ्तार की पहचान है। लेकिन इसके बावजूद लोग एक-दूसरे से गले मिलते हैं, मुस्कुराते हैं और अल्लाह का शुक्र अदा करते हैं। ग़ज़ा के बाज़ारों में चहल-पहल भले ही पहले जैसी न हो, लेकिन रमज़ान के दस्तरख़ान पर बैठने वाले लोगों की उम्मीदें किसी भी तरह कम नहीं हुई हैं।
तरावीह और दुआओं का एहसास

Gaza: रमज़ान की रातें ग़ज़ा के लोगों के लिए राहत और सुकून लेकर आती हैं। जैसे ही अज़ान-ए-मगरिब की आवाज़ गूंजती है, मस्जिदें नमाज़ियों से भर जाती हैं। तरावीह की नमाज़ों में भीड़ उमड़ पड़ती है। हर कोई अपने आँसुओं में छिपे दर्द को सजदे में बिछा रहा है।
“हमारे घर उजड़ गए, लेकिन हमारे दिलों में ईमान और इबादत की रोशनी अब भी बरकरार है,” यह कहना था 62 वर्षीय सईद अहमद का, जो अपने पोते-पोतियों के साथ नमाज़ पढ़ने आए थे।
ये भी पढ़े- Ibn Al Nafis एक अजीम साइंसदान जिसे आज की मेडिकल साइंस ने भुला दिया।मस्जिदों में हर रोज़ की तरह इस बार भी दुआओं का सिलसिला जारी है। किसी की दुआ है कि घर फिर से बस जाएं, किसी की तमन्ना है कि उसके बिछड़े हुए अपने फिर से मिल जाएं। लेकिन सबसे ज़्यादा यही दुआ की जा रही है कि ग़ज़ा को अमन और चैन नसीब हो।
बच्चों की मासूम ख़ुशियाँ

Gaza: ग़ज़ा के बच्चों के लिए यह रमज़ान पहले से अलग है। न जाने कितने बच्चे अनाथ हो गए, कितने अपने माता-पिता से बिछड़ गए। लेकिन इस सबके बावजूद, रमज़ान उनके चेहरों पर मुस्कान लाने में कामयाब हो रहा है।
इस बार भी बच्चों के लिए छोटे-छोटे तोहफों और मिठाइयों का इंतज़ाम किया गया। सड़कों पर, मस्जिदों के पास और राहत कैंपों में बच्चों को देखने पर पता चलता है कि ज़िंदगी अभी भी मुस्कुरा सकती है।
Gaza के लोगों का हौसला यह साबित करता है कि रमज़ान सिर्फ रोज़ों और इबादत का नाम नहीं, बल्कि यह सब्र, शुक्र और उमीद का महीना भी है।
इस बार का रमज़ान ग़ज़ा के लिए ज़ख़्मों को भुलाने और आगे बढ़ने की एक नई कोशिश है। मुसलमानों ने साबित कर दिया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें आ जाएं, उनका यक़ीन, उनकी इबादत और उनकी हिम्मत कभी कमज़ोर नहीं पड़ सकती।
रमज़ान की ये रातें, ये दुआएँ और ये इफ्तार, उम्मीद और एक नये सवेरे की इब्तिदा हैं। ग़ज़ा के लोग जानते हैं कि ज़ुल्म का दौर हमेशा नहीं रहता, और यही यक़ीन उनकी सबसे बड़ी ताक़त है।
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